[{(ये कविता मैंने अपने ख़ूबसूरत संघर्षशील दिनों में लिखी थी,तब मैं यूँ ही तुक बंदी करता रहता था,मेरी उम्र तब २५ साल की थी|]})
फिर एक दिन कट गया तेरी राह तकते-तकते,
ये रात भी कटेगी तेरी राह तकते-तकते
बड़ी अजीब सी लगती है,जिंदगी ये मौला,
कुछ सूझता नहीं,बस दिल के अरमान है जलते,
हैं ख़्वाब उस उजाले के जहाँ ढेरों रौशनी हो,
उम्र न कट जाये अंधेरों को तकते-तकते
कहाँ जाएँ किधर जाएँ,कोई राह अब न सूझती,
ये जिंदगी तो बस,एक दर्द सी है लगती,
आता नहीं नज़र कुछ,आँखों को खोलकर भी,
फ़ना हो न जाएँ हम,तारों को तकते-तकते
बड़ी उमंगें थी,ढेरों चाहते थी,
क्या दिन थे मौला,जब तेरी रहमते थी,
सब मिलते थे मुझसे सिने को मिला के,
रुक जाते है अब कुछ हाथ बढ़ते-बढ़ते
अब नहीं दिखती मुझे कोई भी मंज़िल दिखाई,
इस साल नहीं मैंने दीवाली मनाई,
अपनों ने किया है मुझसे अब किनारा,
कहीं देर न हो जाये,मौला तेरी राह तकते-तकते
फिर एक दिन कट गया तेरी राह तकते-तकते,
ये रात भी कटेगी तेरी राह तकते-तकते
आपका नागरिक मित्र
पंकज मणि
फिर एक दिन कट गया तेरी राह तकते-तकते,
ये रात भी कटेगी तेरी राह तकते-तकते
बड़ी अजीब सी लगती है,जिंदगी ये मौला,
कुछ सूझता नहीं,बस दिल के अरमान है जलते,
हैं ख़्वाब उस उजाले के जहाँ ढेरों रौशनी हो,
उम्र न कट जाये अंधेरों को तकते-तकते
कहाँ जाएँ किधर जाएँ,कोई राह अब न सूझती,
ये जिंदगी तो बस,एक दर्द सी है लगती,
आता नहीं नज़र कुछ,आँखों को खोलकर भी,
फ़ना हो न जाएँ हम,तारों को तकते-तकते
बड़ी उमंगें थी,ढेरों चाहते थी,
क्या दिन थे मौला,जब तेरी रहमते थी,
सब मिलते थे मुझसे सिने को मिला के,
रुक जाते है अब कुछ हाथ बढ़ते-बढ़ते
अब नहीं दिखती मुझे कोई भी मंज़िल दिखाई,
इस साल नहीं मैंने दीवाली मनाई,
अपनों ने किया है मुझसे अब किनारा,
कहीं देर न हो जाये,मौला तेरी राह तकते-तकते
फिर एक दिन कट गया तेरी राह तकते-तकते,
ये रात भी कटेगी तेरी राह तकते-तकते
आपका नागरिक मित्र
पंकज मणि