कैसे कहे की अब सूरज डूब चूका है,रौशनी नहीं आएगी कभी
आज़ादी की आत्महत्या के ज़िम्मेदार कौन,सन्नाटा पसरा,मौन है सभी
इस अँधेरी रात में धुंध घने कोहरे में अब सूरत भी तो दिखती नहीं
कैसे मान लू मैं हृदय में जो हो रहा है यहाँ, सब हो रहा वो सही
ये रात लम्बी हो गयी है या फिर इस रात की सुबह नही
लोकतंत्र दिल बहलाने का ख्याल है या फिर है आधा अधुरा कोई ख्वाब
जो हुआ था आज यहाँ था किसी गंभीर प्रश्न का एक भद्दा जवाब
या फिर कर रहा है दूर बैठा कोई इस टूटे हुए दिल से एक गंभीर मजाक
कैसे मान लू मैं हृदय में जो हो रहा है यहाँ, सब हो रहा वो सही
ये रात लम्बी हो गयी है या फिर इस रात की सुबह नही
अब तो ऐतबार भी टुटा हैं , सपना दूर बैठा कहीं मुस्कुरा रहा है
तमाम जुट रहे है लोग मगर भीड़ में खुद को तनहा पा रहा है
साथ मेरे है सभी पर क्यों है,ऐसा कोई अपना छोड़ के जा रहा है
धुंधली रौशनी दिखाई देती तो है ,कोई है उधर मशालों को जलाएं हुए
जिन्दा सा लगता तो है,वो जो है हिन्दुस्तान को सीने में बसाये हुए
जिनसे मुखातिब है जानता ही नहीं सब पुतले है मिटटी के बनाये हुए
इतिहास पूछेगा कभी हम सबसे क्यों लुटते हुए देश को बचा न सके,
अपनी माँ की ममता पे शरीर का कणमात्र खून बहा न सके
क्यों सोते हुओं को जगा न सके,भारत को भारत बना न सके
कैसे मान लू मैं हृदय में जो हो रहा है यहाँ, सब हो रहा वो सही
ये रात लम्बी हो गयी है या फिर इस रात की सुबह नही
जो सो रहे है गहरी नींद में जाग जाएँ,भरो हुंकार जोर से ताकि ये राक्षस भाग जाये
कल फिर कोई इस देश का सौदा कर न सके,भूखे पेट फिर कल कोई मर न सके
आपका नागरिक मित्र
पंकज मणि
आज़ादी की आत्महत्या के ज़िम्मेदार कौन,सन्नाटा पसरा,मौन है सभी
इस अँधेरी रात में धुंध घने कोहरे में अब सूरत भी तो दिखती नहीं
कैसे मान लू मैं हृदय में जो हो रहा है यहाँ, सब हो रहा वो सही
ये रात लम्बी हो गयी है या फिर इस रात की सुबह नही
लोकतंत्र दिल बहलाने का ख्याल है या फिर है आधा अधुरा कोई ख्वाब
जो हुआ था आज यहाँ था किसी गंभीर प्रश्न का एक भद्दा जवाब
या फिर कर रहा है दूर बैठा कोई इस टूटे हुए दिल से एक गंभीर मजाक
कैसे मान लू मैं हृदय में जो हो रहा है यहाँ, सब हो रहा वो सही
ये रात लम्बी हो गयी है या फिर इस रात की सुबह नही
अब तो ऐतबार भी टुटा हैं , सपना दूर बैठा कहीं मुस्कुरा रहा है
तमाम जुट रहे है लोग मगर भीड़ में खुद को तनहा पा रहा है
साथ मेरे है सभी पर क्यों है,ऐसा कोई अपना छोड़ के जा रहा है
धुंधली रौशनी दिखाई देती तो है ,कोई है उधर मशालों को जलाएं हुए
जिन्दा सा लगता तो है,वो जो है हिन्दुस्तान को सीने में बसाये हुए
जिनसे मुखातिब है जानता ही नहीं सब पुतले है मिटटी के बनाये हुए
इतिहास पूछेगा कभी हम सबसे क्यों लुटते हुए देश को बचा न सके,
अपनी माँ की ममता पे शरीर का कणमात्र खून बहा न सके
क्यों सोते हुओं को जगा न सके,भारत को भारत बना न सके
कैसे मान लू मैं हृदय में जो हो रहा है यहाँ, सब हो रहा वो सही
ये रात लम्बी हो गयी है या फिर इस रात की सुबह नही
जो सो रहे है गहरी नींद में जाग जाएँ,भरो हुंकार जोर से ताकि ये राक्षस भाग जाये
कल फिर कोई इस देश का सौदा कर न सके,भूखे पेट फिर कल कोई मर न सके
आपका नागरिक मित्र
पंकज मणि
हर सन्नाटे के पीछे की गूँज बहुत लंबी होती है. और ओ गूँज जल्द ही सुनाई देने वाला है.
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